घर में आज आलू-चना बना था, इकलौती (दूसरी के लिए हिम्मत नहीं है भाई) पत्नी ने लहसून और जीरे से छौंक मार कर जो परोसा, तो आनंद आ गया चटख-चटख चटखारे लेकर खाने में। निम्बूड़ा का खट्टा रस मिल जाए साथ में, तो मजा आ जाए, स्वाद बढ़ जाए आलू-चने का। वैसे भी आजकल आलोचना का दौर कुछ ज्यादा ही चल पड़ा है। अमूमन आलोचना और आलू-चना में मुझे कोई खास अंतर नहीं दिखता, क्योंकि लोग आलू-चना भी चाव से खाते हैं और आलोचना भी बड़े शौक से पढ़ते हैं, देखते हैं, सुनते हैं। दोनों में तड़का जरूरी है, आलोचना में नेताओं की जबानदराजी का तड़का इसका मजा और भी बढ़ा देता है। ऐसे ही मेरे शहर में एक बुध्दजीवी को आलोचना का बड़ा चस्का था और आलू-चना का भी, आलोचना कर मीनमेख निकालना तो कोई मेरे इस बुध्दजीवी बंधु से सीखे, मंत्री से लेकर संतरी तक और नेता से अभिनेता तक आल-ओव्हर किसी के भी बारे में धांसू विश्लेषण मतलब आलोचना का जैसे एकाधिकार था। कुछ लोग जैसे खुद को सुपरसीट बताने के लिए तरह-तरह के नुस्खे आजमाते हैं, वैसे ही बुध्दजीवी महाशय कम गुरू नहीं थे। कोई माने या ना माने, पर आलोचना का उजला पक्ष इसी से साबित हो जाता है कि भले ही सुकरात, तुलसीदास, रहीम, सूरदास, वाल्मिकी जैसे दार्शनिकों, संतों के सुविचारों पर अपने कान न लगाते हों, पर आलोचना की बात हो तो लोगों के मन में एक मधुर सा रस घुलने लगता है, बिलकुल छौंक लगे हुए आलू-चने के स्वाद की तरह।  निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाए, यह तो सबने ही सुना है कि आलोचना करने वाले के लिए तो हमें एक कुटिया बनाकर, उसे गोबरपानी से लीप पोतकर तैयार रखनी चाहिए, ताकि आलोचक को उसमें आराम से रखा जा सके।
मैं खुद भी इसी श्रेणी का हूं, लिहाजा ऐसे ही बंधुओं से पाला पड़ता रहता है। दफ्तर के लिए निकलता हूं तो अपना ही कोई भाई बंधु मिल जाता है, बस या लोकल ट्रेन में। फिर चल पड़ता है आलू-चना आई मीन आलोचना का दौर। महानगर से लेकर गांव के गलियारे तक और हाई-फाई सोसायटी के रॉकी, जॉनी, रेम्बो से लेकर गांव के टेटकू-तिहारू तक कोई न कोई टापिक आ ही जाता है। लेकिन इस बार आलोचना का निशाना बाबाओं पर है। अंधभक्तों, अंधविश्वासियों और आस्था के नाम पर लुटने वालों को कौन बचाए ? देश में बाबाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है। मठ-मंदिरों की संपत्तियों को देखें तो आंखें खुली रह जाती हैं भाई। करोड़ों अरबों में खेलते देश के कई बाबाओं को मेरा शत्-शत् नमन है सरकार। क्या करूं मैं भी उसी तरह किरपा पाने के लिए तरस रहा हूं, जिसके लिए लोग हजारों रूपए देने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं। आखिर मैं भी तो आर. के. लक्ष्मण के कार्टून के आम आदमी से कम थोड़े हूं। माना कि मौसम आम खाने का आ गया है, लेकिन अब तक गुठलियों के दाम मिलने शुरू नहीं हुए हैं, तो मैं सोचता हूं कि गुठलियों के दाम कैसे निकाले जाएं ? क्योंकि बाबाओं की बढ़ती संपत्ति देख कर कईयों के दिल पर छुरी चलने लगती है, मेरे भी। लिहाजा अब मैं सोचने लगा हूं कि कागज-कलम छोड़ बाबा बनने की तैयारी कर लेनी चाहिए। वैसे भी आस्था के नाम पर लूटने और लुटने का कारोबार अन्य कार्पोरेट सेक्टर से तो बड़ा है ही, अरबों में नहीं खेल सका, तो कम से कम करोड़पति तो बन ही जाऊंगा, जय हो मेरे महान देश के बाबाओं, अंधविश्वासियों, लुटने-लूटने वालों और मेरे जैसे आलोचकों की भी। कहावत है थोथा चना बाजे घना, पर इसमें संशोधन करते हुए कहना चाहता हूं, आलू-चना, मतलब आलोचना बाजे घना, क्योंकि इसमें तो स्वाद ही स्वाद है।
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  • टीवी चैनल पर गुलाम अली साहब की पुरकशिश आवाज से सजी गजल चल रही थी गजल ‘ हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है‘। तभी मोबाईल की कानफाड़ू रिंगटोन ने रंग में भंग डालते हुए मजा किरकिरा कर दिया। चैनल के दफ्तर से फोन था, डेस्क वाले बंधु ने जरा तेज आवाज में फटकारते हुए कहा ‘अरे, क्या कर रहे हो, शाम का बुलेटिन शुरू होने वाला है, तुम्हारे शहर में बिजली विभाग के दफ्तर में जमकर हंगामा हो रहा है और तुम अभी तक सो रहे हो। मैं हड़बड़ाया, अपना बैग उठाया और लपक लिया बिजली विभाग के दफ्तर की ओर। वहां पहुंचते तक हंगामा थम चुका था, पर लोगों की भीड़ थी, मैंने कैमरा चालू किया और फुटेज बनाने लगा। किसी तरह दफ्तर के अंदर दाखिल हुआ तो कुछ कुर्सियां टूटी हुई, सामान बिखरा हुआ, मुझे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई, फटाफट शूटिंग करके अफसरों और जनता की बाईट लेकर उसे चैनल में भेजने के लिए भिड़ गया। डेढ़ घंटे बाद चैनल पर न्यूज शुरू हो गई थी, एंकर अपनी तड़कती-फड़कती आवाज में हंगामें का गुणगान शुरू कर चुका था ‘हम आपको दिखा रहे हैं ब्रेकिंग न्यूज, किस दफ्तर में हुई जमकर तोड़फोड़, किस अधिकारी को पीटा जनता ने, आखिर क्यूं हुआ हंगामा वगैरह, वगैरह..। फिर वही तामझाम के साथ खबर परोसी गई दर्शकों को। 
  • हाय रे हंगामा, सोचते सोचते सिर तेजी से घूमने लगा, कितना हंगामा होता है रोज देश में, बिना हंगामें के शायद राजनीति और मीडिया के पेट का पानी नहीं पचता होगा दिन भर में। वैसे भी इन दिनों देश में बवाल पर बवाल, हंगामा ही हंगामा हो रहा है। जनरल वी. के. सिंह की उम्र का हंगामा थमा नहीं कि अरविंद केजरीवाल ने अपने मुखारबिंद से मंत्री वीरभद्र सिंह की भद्रता को ललकार दिया, फिर हंगामा, मामला सलटा नहीं कि इंडियन एक्सप्रेस की सनसनीखेज रिपोर्ट ने फिर बवाल कर दिया, सदन से लेकर सड़क तक फिर हंगामा। वैसे आजकल हंगामें के कुछ पेटेंट परमानेंट हो गए हैं, अन्ना कुछ बोले तो हंगामा, दिग्गी मुंह खोले तो हंगामा, मनमोहना के मौन पर हंगामा, ममता के कड़वे बोल पर हंगामा, रेल बजट आया तो हंगामा, कामनवेल्थ घोटाले का जिन्न फड़फड़ाया तो हंगामा। देश इन दिनों हंगामें की चपेट में है। राजनीति में हर बात पर हंगामा मचाना तो जैसे खाने के बाद हाजमोला के चटखारे लेने जैसा हो गया है। जितने हंगामें हमारे देश में रोजाना होते हैं अगर उनकी फेहरिस्त बनाई जाए तो इस विधा में भी हमारे देश का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में जरूर दर्ज हो जाएगा। पुरानी फिल्म में एक गीत है ‘सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन..। तो हंगामा के गुणगान में मुझे भी ये कहना पड़ रहा है कि ‘हंगामा तेरी आस में, नैन हुए बेचैन, तुम्हरे बिन अब लोगों के, दिन कटते नहीं रैन।